Sunday, February 13, 2011

आत्मचिंतन

कि हारो ना तुम बढ़ते चलो
इस जिंदगी से लड़ते चलो
खो जाए गर तो फिर ढ़ूढ लो
गिर जाए गर तो फिर से गढ़ो
खट्टी सही मीठी सही
विष मान लो तो विष ही सही
पर मुफ्त में ये मिलती नहीं
ये इस कदर भी सस्ती नहीं
ये जिंदगी इक राज़ है
ये खुद खुदा की आवाज़ है
जीना यहां मरना यहां
इसके सिवा जाना कहां
इस जिंदगी ने क्या क्या दिया
फिर जिंदगी से कैसा गिला
चलते रहेगा ये सिलसिला
हर मौत के बाद है जिंदगी
होती रहेगी ये दिल्लगी
इसलिए
हारो ना तुम बढ़ते चलो
इस जिंदगी से लड़ते चलो...